“सम्पूर्ण ब्रह्मांड में हर रचित वस्तु उस परमात्मा के ज्ञान की ओर ले जाने वाला द्वार है…”
– बहाई लेखों से
किसी फूल की पंखुड़ियों के विन्यास से लेकर ब्रह्मांड के तारामंडलों की कार्य-प्रक्रिया को व्याप्त करने वाली रहस्यमयी सुव्यवस्था तक, विचारों और अनुभूतियों के धरातल से लेकर चेतना के सूक्ष्म एवं वर्णनातीत यथार्थों तक –अनादि काल से लोग इस सृष्टि की गरिमा, भव्यता और सुंदरता पर विचार करते आए हैं और उस पर विस्मित हुए हैं। अस्तित्व के संसार की इस अद्भुत परिपूर्णता और उसके सौंदर्य के प्रति मनुष्य के मनो-मस्तिष्क ने जिस एकमात्र उद्गार को समुचित समझा वह है उस ’परम प्रज्ञा’ की उपासना और आराधना जिसने इस अनूठी सृष्टि की रचना की है। वह महान ’अस्तित्व’ जिसे परमात्मा (गॉड), ईश्वर या अल्लाह इत्यादि नामों से पुकारा गया है, उसके और वैयक्तिक आत्मा के बीच का सम्बंध ही दुनिया के सभी धर्मों का मूल विषय रहा है। इसी स्नेहपूर्ण सम्बंध के परिप्रेक्ष्य में, महान धर्मों के ’संस्थापकों’ ने अपने धर्मानुयायियों को इस बात के लिए प्रेरित किया है कि वे अपनी पशु-प्रवृत्तियों का दमन करते हुए प्रेम, उदारता, करुणा और न्याय जैसे दिव्य गुणों का विकास करें जो कि सौहार्दपूर्ण सामाजिक सह-अस्तित्व के लिए परम आवश्यक हैं। दिव्य अस्तित्व के साथ इस सम्बंध से व्यक्ति को न केवल अर्थ-बोध एवं सुरक्षा तथा नैतिक उन्मुखता प्राप्त हुई है बल्कि इससे मानवजाति की एकता की चेतना को एक आधार भी मिला है, क्योंकि लोग एक-दूसरे को एकमेव ईश्वर की संतान के रूप में देखते हैं और यह पाते हैं कि उन सबकी मूल प्रकृति में समान दिव्य गुण और विशेषताएं भरी हुई हैं।
बहाई लेखों में बताया गया है कि ईश्वर की वास्तविकता किसी भी नश्वर मनुष्य की समझ से परे है, किंतु हर रचित वस्तु में हमें उसकी विभूतियों की झलक मिल सकती है। मानवजाति को शिक्षा एवं मार्गदर्शन देने तथा सभ्यता के विकास में अपना अभूतपूर्व योगदान देने के लिए लोगों की क्षमताओं को जागृत करने के लिए, युगों-युगों से वह अपने दिव्य संदेशवाहकों को भेजता आया है जिन्हें हम ईश्वरीय अवतारों के रूप में जानते हैं।