उपासना और सेवा

“…प्रयत्न कर कि दिन-प्रतिदिन तेरे कार्य सुन्दर प्रार्थनाएं बन जाएं।”

– अब्दुल-बहा

बहाई लोग यह मानते हैं कि वर्तमान समय में मानवजाति एक विलक्षण ऐतिहासिक क्षण पर आ पहुंची है जहां वह अपनी सामूहिक परिपक्वता की दहलीज़ पर खड़ी है। यह वह समय है जब उसकी अवश्यंभावी एकता साकार होगी और वे नई संरचनाएं रूप ग्रहण करेंगी जो एक परस्पर-आश्रित संसार के उपयुक्त होंगी। इस मान्यता में मानव जीवन की विभिन्न प्रक्रियाओं, जिनमें उपासना भी शामिल है, को समझने के तौर-तरीकों का अभिप्राय निहित है। मानवजाति की एकता की इस संकल्पना से प्रेरित होकर, बहाई लोग एक नई विश्व-सभ्यता के निर्माण में अपना योगदान देने के प्रयास में जुटे हुए हैं—एक ऐसी विश्व-सभ्यता जो आध्यात्मिक और भौतिक समृद्धि से सम्पन्न होगी।

अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयत्नों में, बहाई लोग प्रार्थना और भक्ति की भावना को सभी लोगों की भलाई के लिए किए जाने वाले ठोस कार्यों से जोड़ने का प्रयास करते हैं क्योंकि उस भावना को ऐसे ही कार्यों से अभिव्यक्त किया जा सकता है। अतः, इस प्रसंग में, जरूरी है कि उपासना सेवा से जुड़ी हुई हो, क्योंकि समुदाय की सेवा ही परमात्मा के प्रति भक्ति-भावना और उसके रचित जीवों के प्रति प्रेम झलकाने का माध्यम है।

भारत भर के सभी समुदायों में, और वास्तव में सारी दुनिया में, बहाई शिक्षाओं से प्रेरित लोगों के समूह भक्तिपरक सभाओं के लिए नियमित रूप से एकत्रित होते हैं ताकि वे अपने सृष्टिकर्ता परमेश्वर से अपने सम्बंध को प्रगाढ़ बना सकें और ’पवित्र-ग्रंथों’ के आत्मा को स्पंदित कर देने वाले शब्दों में निहित गूढ़ अर्थों के बारे में आपस में सार्थक चर्चा कर सकें। सामूहिक भक्ति और पवित्र लेखों के अध्ययन के उपरांत वे अन्य मित्रों के साथ उन शब्दों के रचनात्मक प्रभाव के बारे में, वार्तालाप के रूप में अथवा बच्चों की नैतिक कक्षाओं, किशोरों के सशक्तीकरण के लिए निर्मित समूहों या फिर युवाओं और वयस्कों के लिए आयोजित अध्य्यनवृत कक्षाओं के माध्यम से, अपने विचारों को साझा करने की ओर प्रवृत्त होते हैं। उपासना तथा दूसरों को आध्यात्मिक शिक्षा देने के उद्देश्य से की जाने वाली सेवा की इस पद्धति में जुटे हुए समुदाय के सदस्य अपने इर्द-गिर्द सतत बढ़ती हुई संख्या में लोगों के बीच ’रचनात्मक शब्दों’ के प्रभाव को व्यापक बनाने में सहायता देते हैं। इस क्रम में वे अपने समुदायों को सामाजिक एवं आर्थिक कल्याण की विभिन्न परियोजनाओं के लिए भी प्रेरित करते हैं।

सामुदायिक जीवन का यही वह प्रसंग है जहां उपासना और सेवा को एक-दूसरे के साथ पिरोया गया है और जिसके दायरे में बहाई उपासना मंदिर की भूमिका को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। एक ’मंदिर’ की तरह, मश्रिकुल-अज़कार—जिसका शाब्दिक अर्थ है ’परमेश्वर के स्मरण का उदय-स्थल’—एक भौतिक संरचना है जिसमें सभी पृष्ठभूमियों के लोग प्रार्थना, ध्यान और अपने ’सृष्टिकर्ता’ के साथ संलाप करने के लिए एक साथ एकत्रित होते हैं। तथापि, उपासना मंदिर का प्रभाव व्यापक है और वह अपने आराधकों को अपनी भक्ति की भावना को सेवा के कार्यों में रूपांतरित करने में भी सहायता देता है। प्रत्येक बहाई उपासना मंदिर भविष्य में अपने दायरे में संस्थापित ’आश्रित संस्थाओं’ के माध्यम से सामाजिक, मानवतावादी, शैक्षणिक एवं वैज्ञानिक लक्ष्यों की दिशा में सहायता देगा।

“बहाउल्लाह द्वारा प्रतिपादित मूलभूत सिद्धांत यह है है कि … धार्मिक सत्य परमपूर्ण नहीं बल्कि सापेक्ष है, कि ’दिव्य प्रकटीकरण’ सतत एवं प्रगतिशील रूप से चलने वाली प्रक्रिया है, कि दुनिया के सभी धर्म एक ही दिव्य स्रोत से उत्पन्न हुए हैं, कि उनके मूल सिद्धांत पूर्णतः एक-दूसरे से तालमेल में होते हैं, कि उनकी शिक्षाएं एक ही सत्य के पहलू हैं….”

– बहाई लेखों से

बहाई यह मानते हैं कि सभी धर्मों की नींव एक है। मानवजाति के पास आने वाले सभी प्रकटावतार एक ही ’दिव्य स्रोत’ से आए हैं और वे सब मानवजाति को शिक्षित करने के समान उद्देश्य को पूरा करते हैं। यह सत्य है कि सभी धर्मों का अपना-अपना अलग इतिहास और भिन्न भौगोलिक पृष्ठभूमि रही है किंतु सभी धर्मों की आध्यात्मिक एवं नैतिक शिक्षाओं का सार-तत्व एक ही है। सभी धर्म मनुष्य की प्रकृति में निहित नैतिक एवं आध्यात्मिक क्षमताओं को विकसित करने और ऐसे समाजों का निर्माण करने के उद्देश्य से ही आए हैं जिनमें ये क्षमताएं फलीभूत हो सकें और उन्हें समाज के कल्याण को उन्नत बनाने की दिशा में उन्मुख किया जा सके। हालांकि बदलती हुई परिस्थितियों और ऐतिहासिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए, विभिन्न धर्मों की सामाजिक शिक्षाओं, विधि-विधानों और रीतियों में अंतर पाया जाता है लेकिन अंततः उन्हें मानवजाति की सामूहिक परिपक्वता को सुविकसित करने के समान उद्देश्य को पूरा करने वाले तत्वों के रूप में देखा जा सकता है। धर्मों की अनिवार्य एकता की यह समझ हमें वह आधार प्रदान करती है जिसपर सभी धर्मों के लोग सभ्यता के विकास की दिशा में प्रयत्न करने के लिए एक साझी आध्यात्मिक विरासत से प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं।

“…एकता का वितान तान दिया गया है। तुम लोग एक-दूसरे को अजनबी मत समझो। तुम सब एक ही वृक्ष के फल और एक ही शाख की पत्तियां हो।”

– बहाउल्लाह

बहाई उपासना मंदिर मानवजाति की एकमेवता के प्रति समर्पित है। अपने एकमेव ’सृष्टिकर्ता’ (परमात्मा) से प्रार्थना करने के लिए सबका स्वागत करते हुए, वह इस महत्वपूर्ण सिद्धांत को सांकेतिक और क्रियात्मक रूप से झलकाता भी है।

यह दृढ़ विश्वास कि हम सब एक ही मानव-परिवार के अंग हैं, बहाई धर्म की मूल अवधारणा है। मानवजाति की एकमेवता का सिद्धांत “वह धुरी है जिसके चारों ओर बहाउल्लाह की समस्त शिक्षाएं घूमती हैं।”

बहाई धर्म के संस्थापक युगावतार, बहाउल्लाह, ने मानव-जगत की तुलना मनुष्य के शरीर से की है। इस जैविक संरचना के अंदर, विभिन्न रूपों में विभिन्न प्रकार के प्रकार्यों को पूरा करने वाली कोशिकाएं एक स्वस्थ प्रणाली को कायम रखने के लिए अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाती हैं। इस शरीर को शासित करने वाला सिद्धांत है सहयोग। इसके विभिन्न अंग संसाधनों के लिए आपस में प्रतिस्पर्द्धा नहीं करते, अपितु उनमें से प्रत्येक कोशिका, अपने जन्म लेने के साथ ही, देने और ग्रहण करने की एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया से संयोजित होती है।

मानवजाति की एकमेवता के सिद्धांत को स्वीकार करने की मांग यह है कि हर तरह के पूर्वाग्रह—जातीय, धार्मिक या स्त्री-पुरुष सम्बंधी—को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए।

“सम्पूर्ण ब्रह्मांड में हर रचित वस्तु उस परमात्मा के ज्ञान की ओर ले जाने वाला द्वार है…”

– बहाई लेखों से

किसी फूल की पंखुड़ियों के विन्यास से लेकर ब्रह्मांड के तारामंडलों की कार्य-प्रक्रिया को व्याप्त करने वाली रहस्यमयी सुव्यवस्था तक, विचारों और अनुभूतियों के धरातल से लेकर चेतना के सूक्ष्म एवं वर्णनातीत यथार्थों तक –अनादि काल से लोग इस सृष्टि की गरिमा, भव्यता और सुंदरता पर विचार करते आए हैं और उस पर विस्मित हुए हैं। अस्तित्व के संसार की इस अद्भुत परिपूर्णता और उसके सौंदर्य के प्रति मनुष्य के मनो-मस्तिष्क ने जिस एकमात्र उद्गार को समुचित समझा वह है उस ’परम प्रज्ञा’ की उपासना और आराधना जिसने इस अनूठी सृष्टि की रचना की है। वह महान ’अस्तित्व’ जिसे परमात्मा (गॉड), ईश्वर या अल्लाह इत्यादि नामों से पुकारा गया है, उसके और वैयक्तिक आत्मा के बीच का सम्बंध ही दुनिया के सभी धर्मों का मूल विषय रहा है। इसी स्नेहपूर्ण सम्बंध के परिप्रेक्ष्य में, महान धर्मों के ’संस्थापकों’ ने अपने धर्मानुयायियों को इस बात के लिए प्रेरित किया है कि वे अपनी पशु-प्रवृत्तियों का दमन करते हुए प्रेम, उदारता, करुणा और न्याय जैसे दिव्य गुणों का विकास करें जो कि सौहार्दपूर्ण सामाजिक सह-अस्तित्व के लिए परम आवश्यक हैं। दिव्य अस्तित्व के साथ इस सम्बंध से व्यक्ति को न केवल अर्थ-बोध एवं सुरक्षा तथा नैतिक उन्मुखता प्राप्त हुई है बल्कि इससे मानवजाति की एकता की चेतना को एक आधार भी मिला है, क्योंकि लोग एक-दूसरे को एकमेव ईश्वर की संतान के रूप में देखते हैं और यह पाते हैं कि उन सबकी मूल प्रकृति में समान दिव्य गुण और विशेषताएं भरी हुई हैं।

बहाई लेखों में बताया गया है कि ईश्वर की वास्तविकता किसी भी नश्वर मनुष्य की समझ से परे है, किंतु हर रचित वस्तु में हमें उसकी विभूतियों की झलक मिल सकती है। मानवजाति को शिक्षा एवं मार्गदर्शन देने तथा सभ्यता के विकास में अपना अभूतपूर्व योगदान देने के लिए लोगों की क्षमताओं को जागृत करने के लिए, युगों-युगों से वह अपने दिव्य संदेशवाहकों को भेजता आया है जिन्हें हम ईश्वरीय अवतारों के रूप में जानते हैं।

“अस्तित्व के संसार में प्रार्थना से अधिक मधुर और कुछ भी नहीं है …. प्रार्थना और अनुनय की स्थिति सबसे आशीर्वादित अवस्था है।”

– बहाई लेखों से

मनुष्य एक आध्यात्मिक प्राणी है। जिस तरह हमारे शरीर को अपने समुचित विकास के लिए पोषण की आवश्यकता होती है वैसे ही अपने आध्यात्मिक जीवन और स्वास्थ्य के लिए हमें नियमित प्रार्थना की आवश्यकता होती है। प्रार्थना आत्मा का भोजन है। यह हमारे हृदयों में ईश्वर के प्रेम को प्रगाढ़ बनाती है और हमें उसके निकट लाती है। बहाई लेखों में कहा गया है: “अस्तित्व के संसार में प्रार्थना से अधिक मधुर और कुछ भी नहीं है …. प्रार्थना और अनुनय की स्थिति सबसे आशीर्वादित अवस्था है।… यह आध्यात्मिकता, सजगता और स्वर्गिक अनुभूतियों का सृजन करती है, प्रभु-साम्राज्य के नए-नए आकर्षणों को जन्म देती है और उच्चतर प्रज्ञा के प्रति सुग्राह्यता उत्पन्न करती है।“ प्रार्थना की स्थिति में रहने का मतलब यह नहीं है कि केवल भक्ति-भावना के क्षणों में हम पवित्र श्लोकों का उच्चारण करें, बल्कि यह कि अपने दिनभर के कार्यकलापों में भी हम परमात्मा की ओर उन्मुख रहें।

अपने उच्चतम रूप में, प्रार्थना ईश्वर के प्रति स्नेहपूर्ण स्तुति की पावन अभिव्यक्ति है। “प्रार्थना करते समय, सच्चे आराधक को ईश्वर से अपनी इच्छाओं और कामनाओं को पूरा करने की याचना करने के लिए ही प्रयत्नशील नहीं रहना चाहिए बल्कि उन इच्छाओं को समंजित करने और उन्हें ’दिव्य इच्छा’ के अनुरूप बनाने के लिए। केवल ऐसी ही मनोवृत्ति के माध्यम से व्यक्ति को आंतरिक शांति और संतुष्टि का बोध हो सकता है जो प्रार्थना की शक्ति से ही संभव है।“ तथापि, यह भी स्वाभाविक है कि हम अक्सर ईश्वर से सहायता की याचना भी करेंगे। ऐसी प्रार्थना के बाद, हम मनन करेंगे और जो भी सबसे अच्छा मार्ग प्रतीत होगा उसका अनुसरण करेंगे और देखेंगे कि क्या हमारे प्रयासों को संपुष्टि प्राप्त हुई है। हमें परमेश्वर की करुणा में पूर्ण विश्वास रखना चाहिए और यह सुनिश्चित मानना चाहिए कि वह हमें वह प्रदान करेगा जो हमारे लिए सर्वोत्तम होगा।

हे परमेश्वर! यह वर दे कि एकता की ज्योति सारी पृथ्वी पर छा जाए और “साम्राज्य प्रभु का है” यह मुहर इसके सभी लोगों के ललाट पर अंकित हो जाए।

— बहाउल्लाह

हे मेरे ईश्वर! मेरे परमेश्वर! अपने सेवकों के हृदयों को मिलाकर एक कर दे और उन पर अपना महान उद्देश्य प्रकट कर। वे तेरी शिक्षाओं पर चलें और तेरे नियमों पर अटल रहें। हे ईश्वर! उनके प्रयास में तू उनकी सहायता कर और उन्हें अपनी सेवा करने की शक्ति प्रदान कर। हे ईश्वर! उन्हें उनके स्वयं के ऊपर न छोड़; उनके पगों का, अपने ज्ञान के प्रकाश द्वारा मार्गदर्शन कर और उनके हृदयों को अपने प्रेम से आनंदित कर दे। सत्य ही, तू उनका सहायक और स्वामी है।

— बहाउल्लाह

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